उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनकारियों के साथ सरकार का मजाक तो है ही उसके कारकून भी अब्बल दर्जे का निकम्मापन दिखा रहे हैं। उत्तराखण्ड हाई कोर्ट को सरकार के वकील नहीं समझा पाये कि किसी भी आन्दोलन में आन्दोलनकारियों पर सच्चे झूठे मुकदमे लगाये बिना हमारा तंत्र मानता नही है। उत्तराखण्ड का आन्दोलन गांधीवाद की मिसाल रहा जहां आन्दोलनकारियों ने अपने सीने पर गोली झेली और मां बहिनों की अस्मिता पर हमले के बावजूद हिंसक नहीं हुए, कई बार इस अहिंसक प्रबृति की तीखी आलोचना भी हुई लेकिन अहिंसा के उस हथियार को उत्तराखण्डी मजबूती से पकडे रहे और राज्य ले लिया। हाई कोर्ट का तोड फोड के आरोपियों को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन की सुविधा देने के तर्क से सहमत न होना निश्चित रुप से सरकार की पेरवी से जुडा मामला है। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में एक पक्ष जनता थी तो दूसरी सरकार व उसकी पुलिस, तब भला वह आन्दोलनकारियों की प्रशंसा के पुल बाधती या उन्हें अपराधिक मामलों में आरोपित करती? उसने वही किया जो पुलिस का चरित्र है और शांति भंग से लेकर तोड-फोड, आगजनी जैसी धाराओं में मुकदमे दर्ज होना स्वाभाविक था। 3 नवम्बर 15 गैरसैंण के विधान सभा सत्र में विधान सभा ने उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनकारियों को 10 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का विधेयक पारित किया जिस पर राज्यपाल कुण्डली मारकर बैठ गये। और विधेयक कानून नही बन पाया।
मुख्य मंत्री हरीश रावत ने 31 अगस्त 14 तक आन्दोलनकारियों के आवेदन की तिथि दी थी, कई ने आवेदन किए लेकिन वाह रे जांच अधिकारियो वे मानने को तैयार नहीं कि उत्तराखण्ड के लिए आवेदक भूख हडताल पर भी बैठा है। गैरसैंण क्षेत्र का मामला उदाहरण है। शासन द्वारा तय मानकों के अनुसार पुलिस, एल आई यू का रिपोर्ट, चिकित्सालय का प्रमाण और वे साक्ष्य जिनसे जिलाधिकारी सहमत हों चयन के आधार हैं। अधिकांश में पुलिस सन् 1994 व 1996 की जी डी नष्ट कर चुकी है। उस समय की एल आई यू रिपोर्ट भी उपलब्ध नहीं है,बडी मुश्किल से चिकित्सालय का प्रमाण पत्र मिला अब जांच अधिकारी राजस्व उपनिरीक्षक उसे प्रमाण मानने को ही तैयार नहीं हैं। पाठक स्वयं देखें कि चिकित्साधिक्षक का पत्र क्या अनशनकारियों के आन्दोलनकारी होने को नही प्रमाणित कर रहा है?
8 फरवरी1996 से गैरसैंण के रामलीला मैदान मेें उत्तराखण्ड राज्य की मांग पर हुए आमरण अनशनकारी और प्राथमिक स्वा कंन्द्र द्वारा उनके स्वास्थ्य परीक्षण और पुलिस द्वारा जबरन उठाये जाने की सूची-
8 फरवरी 1996 आमरण अनशन पर बैठे-गोबिन्दसिंह नेगी,सुरेन्द्रसिंह बिष्ट,खीमसिंह रौथाण,रामेश्वर प्रसाद ढौंडियाल,दिलबर सिंह, जिन्ळें पुलिस ने 16 फरवरी को जबरन उठा कर जिला चिकित्सालय गोपेश्वर में फोर्स फीडिंग करायी। 16 फरवरी 1996 को गैरसैंण में उत्तराखण्ड विकास के तत्कालीन प्रमुख सचिव सुरेन्द्र सिंह पांगती, कमिश्नर गढवाल (वर्तमान मुख्य सचिव) सुभाष कुमार और जिलाधिकारी चन्द्रसिंह में थे और उन्होंने आन्दोलनकारियों का हाल चाल पूछा था।
16फरवरी 1996 को आमरण अनशन पर बैठे- पदमपति सिस्र्वाल, धनसिंह बिष्ट, विष्णु दत्त बेंजोला, सालिगराम मनोडी व प्रभाष कुमार, जिन्हें 27 फरवरी 1996 को जबरन उठा जिला चिकित्सालय गोपेश्वर ले जाया गया।
27 फरवरी 1996 को आमरण अनशन पर बैठे- धूमादेवी, चन्द्रसिंह यायावर, बिक्रम सिंह परोडा, कै हिम्मतसिंह व गंगासिंह, जिन्हें 7 मार्च 1996 को जबरन उठाया गया।
7 मार्च 1996 को आमरण अनशन पर बैठे-रामीदेवी, बसन्ती देवी, बचनसिंह, सुरेशानन्द सती, प्रतापसिंह व गोविन्दराम ढोंडियाल, जिन्हें 14 मार्च को जबरन उठा प्रा स्वा केन्द्र गैरसैंण में फोर्स फीडिंग कराई गयी।
14 मार्च 1996 को आमरण अनशन पर बैठे-संग्रामी देवी, नन्दी देवी, देवेश्वरी देवी, बाग सिंह व रामसिंह, जिन्हें 21-22 मार्च को पुलिस प्रशासन द्वारा जवरन उठाया गया।
मुख्य मंत्री हरीश रावत ने 31 अगस्त 14 तक आन्दोलनकारियों के आवेदन की तिथि दी थी, कई ने आवेदन किए लेकिन वाह रे जांच अधिकारियो वे मानने को तैयार नहीं कि उत्तराखण्ड के लिए आवेदक भूख हडताल पर भी बैठा है। गैरसैंण क्षेत्र का मामला उदाहरण है। शासन द्वारा तय मानकों के अनुसार पुलिस, एल आई यू का रिपोर्ट, चिकित्सालय का प्रमाण और वे साक्ष्य जिनसे जिलाधिकारी सहमत हों चयन के आधार हैं। अधिकांश में पुलिस सन् 1994 व 1996 की जी डी नष्ट कर चुकी है। उस समय की एल आई यू रिपोर्ट भी उपलब्ध नहीं है,बडी मुश्किल से चिकित्सालय का प्रमाण पत्र मिला अब जांच अधिकारी राजस्व उपनिरीक्षक उसे प्रमाण मानने को ही तैयार नहीं हैं। पाठक स्वयं देखें कि चिकित्साधिक्षक का पत्र क्या अनशनकारियों के आन्दोलनकारी होने को नही प्रमाणित कर रहा है?
8 फरवरी1996 से गैरसैंण के रामलीला मैदान मेें उत्तराखण्ड राज्य की मांग पर हुए आमरण अनशनकारी और प्राथमिक स्वा कंन्द्र द्वारा उनके स्वास्थ्य परीक्षण और पुलिस द्वारा जबरन उठाये जाने की सूची-
8 फरवरी 1996 आमरण अनशन पर बैठे-गोबिन्दसिंह नेगी,सुरेन्द्रसिंह बिष्ट,खीमसिंह रौथाण,रामेश्वर प्रसाद ढौंडियाल,दिलबर सिंह, जिन्ळें पुलिस ने 16 फरवरी को जबरन उठा कर जिला चिकित्सालय गोपेश्वर में फोर्स फीडिंग करायी। 16 फरवरी 1996 को गैरसैंण में उत्तराखण्ड विकास के तत्कालीन प्रमुख सचिव सुरेन्द्र सिंह पांगती, कमिश्नर गढवाल (वर्तमान मुख्य सचिव) सुभाष कुमार और जिलाधिकारी चन्द्रसिंह में थे और उन्होंने आन्दोलनकारियों का हाल चाल पूछा था।
16फरवरी 1996 को आमरण अनशन पर बैठे- पदमपति सिस्र्वाल, धनसिंह बिष्ट, विष्णु दत्त बेंजोला, सालिगराम मनोडी व प्रभाष कुमार, जिन्हें 27 फरवरी 1996 को जबरन उठा जिला चिकित्सालय गोपेश्वर ले जाया गया।
27 फरवरी 1996 को आमरण अनशन पर बैठे- धूमादेवी, चन्द्रसिंह यायावर, बिक्रम सिंह परोडा, कै हिम्मतसिंह व गंगासिंह, जिन्हें 7 मार्च 1996 को जबरन उठाया गया।
7 मार्च 1996 को आमरण अनशन पर बैठे-रामीदेवी, बसन्ती देवी, बचनसिंह, सुरेशानन्द सती, प्रतापसिंह व गोविन्दराम ढोंडियाल, जिन्हें 14 मार्च को जबरन उठा प्रा स्वा केन्द्र गैरसैंण में फोर्स फीडिंग कराई गयी।
14 मार्च 1996 को आमरण अनशन पर बैठे-संग्रामी देवी, नन्दी देवी, देवेश्वरी देवी, बाग सिंह व रामसिंह, जिन्हें 21-22 मार्च को पुलिस प्रशासन द्वारा जवरन उठाया गया।
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