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गैरसैंण राजधानी का सवाल लगता है कांग्रेस-भाजपा दोनों पचा चुके हैं। 2-3 नवम्बर के गैरसैंण विधानसभा के फ्लाप सत्र के बाद न तो सरकार, न विधान सभा अध्यक्ष और न ही नेता प्रतिपक्ष गैरसैंण मुद्दे पर मुखर हैं। रीजनल रिपोर्टर सहित उत्तराखण्ड के स्थानीय मीडिया में सरकार व विपक्ष की दोमुंही नीति का खुलासा होने के बाद जनता के भ्रम की स्थिति समाप्त हो गयी है। देहरादून के रायपुर में विधानभवन व सचिवालय बनाने, उसके लिए 25 करोड रु अवमुक्त होने और निर्माण का खर्च फिलहाल सिडकुल से लेने के निर्णयों के खुलासे ने जनभावना का मुखौटा ओडे मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और विधान सभा अध्यक्ष को बेनकाब कर दिया है।
उत्तराखण्ड जैसे संसाधन विहीन राज्य जिसकी हर जरुरत के लिए केन्द्र का मुंह ताकने की मजबूरी है प्रदेश में तीन-तीन विधान भवन बनाने का निर्णय अदूरदर्शी ही नही राज्य हितों के खिलाफ है और राज्य अवधारणा को अंगूठा दिखाने वाला भी।
विश्व प्रसिद्ध शहर जिसकी आबोहवा, नफासत, गन्ध-सुगन्ध, बासमती और लीची, शैक्षिक संस्थान और भरी-पूरी सुविधाओं पर नेता, माफिया और नौकरशाहों की नजर भला क्यों नही होती? 9 नवम्बर 2000 को देहरादून में घुसपैठिये की तरह उत्तराखण्ड की अन्तरिम सरकार ने जो घुसपैठ की उसे स्थायी बनाने की हर सरकार ने पुरजोर कोशिश की है। वह चाहे कांग्रेस की नारायणदत्त तिवारी की सरकार हो या कडक फौजी भाजपा के भुवनचन्द्र खण्डूडी या तेजतर्रार रमेश पोखरियाल निशंक, विजय बहुगुण और हरीश रावत भी उन्ही परिकल्पनाओं, परिदृश्यों और परिपाटी के शिकार हैं जो राज्य अवधारणा के खिलाफ हैं।
उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन से लेकर कौशिक समिति तक और बाबा मोहन उत्तराखण्डी की शहादत से लेकर दीक्षित आयोग तक जनभावना गैरसैंण के पक्ष में है। मुखर रुप से काबिनामंत्री इंदिरा हृदयेश और हरकसिंह रावत देहरादून को राजधानी बनाने की वकालत कर रहे हैं। उततराखण्ड राज्य आन्दोलन में दोनों ही सकारात्मक भूमिका में नही थे। ये तो उत्तराखण्ड राज्य का अपना भाग्य है कि अपनी लाश पर उत्तराखण्ड देखने वाले नारायण दत्त तिवारी पहली निर्वाचित सरकार के मुख्य मंत्री बन गये। तब राज्य की दशा-दिशा उल्टी ही तो होनी थी और हुई है।
उत्तराखण्ड राज्य को लेकर कांग्रेस- भजपा का कभी कोई कांसैप्ट नही रहा यदि रहा होता तो अपनी लिखी पुस्तिका में राज्य की राजधानी गैरसैंण बनाने की वकालत करने वाले भगतसिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनते ही राजधानी मुद्दा जैसी सोच नही बनानी पडती। कांग्रेस राज में मुजफ्फरनगर जैसे विभित्स कांड पर मुंह-कान-आंख बन्द कर लेने वाली कांग्रेस फिर-फिर सत्ता में लौटती है तो राज्य अवधारणाऐं उलट कर ही आयेंगी।
2017 का चुनाव महत्वपूर्ण है और उत्तराखण्ड में तीसरी ताकतों का बिखराव पुरानी कहानी दोहरा सकता है। अर्थात राज्य अवधारणाओं के सफाये की यह तैयारी होगी। शहीदों के बलिदान की व्यर्थता का उत्तराखण्ड गवाह बनेगा। रीते हो चुके गांव-घरों से लोग पलायन कर चुके हैं नेतओं ने अपनी ठौर बना ली है फिर अवधारणाओं व शहादतों का क्या है? शहीदो हम शर्मिदा हैं हम आपके सपनों का राज्य नही बना पाये हैं।
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