Saturday, November 28, 2015

सुयोग्य संस्कृति के अयोग्य प्रतिनिधियों का दौर है यह

               भारत को संहिष्णु और हाल के वर्षों में आई असहिष्णुता को लेकर देश दो धडों में बंटा दिखाई दे रहा है। एक पक्ष देश की संहिष्णुता को इस ठंग से पेस कर रहा है कि मानो वह कोई अहसान हो कि भारत में संहिष्णुता है और दूसरा पक्ष कुछ घटनाओं के आलोक में असहिष्णुता को रेखांकित कर अपनी चिन्ता सामने ला रहा है। सबसे पहले हमें भारत के स्वरुप को समझना चाहिए। भारत की ख्याति और उसकी परम्परा-सिद्धान्तों को समझना चाहिए। भारत बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुजाजीय और संस्कृतियों का देश है। हजारों सालों के ज्ञात अज्ञात इतिहास कालक्रम ने उसकी बनावट को इतना ठोका-पीटा, सजाया-सवांरा, सुदृढ किया कि वह बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुजातीय और संस्कृतियां उसकी विशेषता बन गयी।
              भगवान विष्णु के चरण कमल से शिव की जटाओं और हिमालय से पृथ्वी पर आने वाली गंगा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बन गयी, उसे कही कोई एतराज नही कि किस धर्म-जाति या संस्कृति का व्यक्ति उसका आचमन करता है किस खेत में सिंचाई करता है और वहां कौन सी फसल लहलहा रही है। सोहार्द के किसी वातावरण को गंगा-जमुनी तहजीब कहा जाता है।
             क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर कहीं भी कोई भेदभाव नही करते और खून अपने लाल रंग में भी एक है। भारत विश्व का सबसे बडा लोकतंत्र है। लेकिन ये विशेषता उसे बहुत बाद में मिली, औपनिवेशिक सत्ता के विदा होने के बाद। उससे पहले हमारी नदियां, पहाड, हवा, वनस्पति यहां के वाशिंदे, उनकी संस्कृति और एकाकार हो सकने की क्षमता और घुल-मिल कर रहने की प्रवृति ये सब सहिष्णुता के कारक थे। हिमालय और गंगा इसलिए महान नही कि वह सबसे बडा पर्वत या नदी है बल्कि इसलिए कि उनके उपकार उनसे भी बडे हैं। इसलिए कोई सहिष्णुता को अहसान माने जो यह भारत की उद्दात परम्परा का अपमान है। हमें हमारे खून से संहिष्णुता मिली है। हवा, पानी, खाद से, उन फसलों से जिनका पोषण हमारी रगों में खून बनकर दौडता है, उन नदियों के नीर से जो बीतराग हैं।
           आज भारत की पहचान अनेकता में एकता का संगम है, धर्मनिरपेक्षतता और सबसे बडा लोकतंत्र का ताज है। लेकिन शुद्र स्वार्थ उस गंगा जमुनी तहजीब का कितना राग अलापें करते उल्टा हैं। राजनीति की रोटी इतनी विषैली हो गयी कि वह पोषण के बजाय मूल्य हंता हो गयी है। इसीलिए उस मुद्दे में पक्ष-विपक्ष नजर जो कही है ही नही, ऐसे झगडे उभाडे जा रहे हैं जो सचमुच चिन्ता पैदा करते हैं। देश पर जिस संकट की बात कही जाती है वह राजनीति की अपनी उपज है और सचमुच के संकटों से ध्यान बटाने की साजिश भी। या ऐ कहें हमारी सुयोग्य संस्कृति के अयोग्य प्रतिनिधियों के दौर में देश की सहिष्णुता सचमुच खतरे में है।   
                                                                                                              पुरुषोत्तम असनोड़ा

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