गैरसैंण
भगवान भुवन भास्कर सूर्य के उत्तरायण प्रवेश का दिन मकर संक्राति, उत्तरायनी और घुघुती त्यार है प्रकृति के बदते मौसम, रंग-रुप के बीच हम सम्पूर्ण जीव-जन्तु, वनस्पति, मानव और सृष्टि की अद्विती सौगात को सहजने-संवारने तथा मानव की उद्दात परम्पराओं और संस्कृतियों के संरक्षण के सहभागी है।
घुघुती त्यार की ऋतु और मौसम से जुडी एक वैज्ञानिक धरातल पर ठोस परम्परा हैं। उत्तराखण्ड का कोई शुभ-अशुभ कार्य गौ, स्वान, बलि और काक ग्रास के बिना सम्पन्न नहीं होता है। चूंकि पहाडों की हाड कंपा देने वाली ठंड से बचने के लिए पक्षी भी प्रवास पर चले जाते हैं, स्वाभाविक है कौऐ भी उत्तरायणी तक प्रवास में रहते हैं और कौ बाछी (कौ ग्रास) उत्तरायणी संग्रांत के दिन नहीं बल्कि बासी(संग्रांत के दूसरे दिन) दी जाती हैं।
उत्तराखण्ड के लिए घुघुती त्यार का केवल ऋतु, मौसम, परम्परा या संस्कृति तक ही सिमित नहीं है। 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में सरयू में बहाये गये कुली-बेगार के वे रजिस्टर उत्तराखण्ड को गुलामी से आजाद कराने की मुहिम बन गयी। कुमाऊं केसरी बदरीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में माघ महिने के 1 गते संबत 1978 बागेश्वर के उत्तरायण मेला में कुली-बेगार (अंग्रेज अधिकारियों जिनमें पटवारी भी शामिल था के आने पर ग्रामीणों द्वारा उनके भोजन, सुख-सुविधा और दूसरे गांव तक छोडने की पूरी व्यवस्था ग्रामीणों द्वारा निःशुल्क और अनिवार्य रुप से देने की व्यवस्था कुली-बेगार थी) न करने की शपथ आन्दोलनकारियों ने सरयू जल उठा कर ली थी और कुली बेगार के रजिस्टर सरयू में बहा दिए थे। कुली-बेगार से मुक्ति का यह आन्दोलन देश के स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा था। बागेश्वर के बाद गढ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में काकोडाखाल तब पौडी जिला और आज जिला चमोली में कुली-बेगार के रजिस्टर जलाये गये।
अत्याचार से मुक्ति और स्वतंत्रता की सांस के लिए बलिदान हुए हमारे शहीदों को उत्तरायण के बढते सूर्य के साथ याद किया जाना चाहिए। आधुनिक उत्तराखण्ड के लिए भी 14 जनवरी का विशेष महत्व है। उत्तराखण्ड राज्य के लिए पहला और एक मात्र ब्लू प्रिंट उत्तराखण्ड क्रांति दल ने 14 जनवरी 1992 को बागेश्वर के उत्तरायणी मेला में जारी किया। अफसोस कि राज्य गठन के 14 सालों में उस ब्लू-पिं्रट की न कोई चर्चा होती है, कार्यवाही का तो सवाल ही नहीं। कुली-बेगार के नये रुप और नये थोकदार-सामंत, राजे-महाराजे हमारे विधाता बन गये हैं। उनसे मुक्ति और उत्तराखण्ड के जनपक्षता के लिए हमारे संघर्षों का दिन उत्तरायण बनना चाहिए।
उत्तरायण के दिन उत्तराखण्ड मे विशेष रूप से कुमांऊं घुघुत बनाये जाते हैं बच्चे कौवों को काले कौवा आजा, घुघती माला खैजा कहकर बुलाते हैं। स्वाद और स्नेह से पगे घुघतो सौगात दी जाती है।
लीला देवी 51 वर्ष कहती हैं-घुघती त्यार को बहु-बेटियां मायके आती हैं और बच्चों के लिये घुघते की माला बनायी जाती हैं तथा घुघते से उनके लिये तरह तरह की आकृतियां बनायी जाती हैं।
ऐसे बनते हैं घुघुते
घी, और गुड के पाक में गेहूं का आटा गुंदा जाता है और फिर भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृति के घुघते बना कर तला जाता है।
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